महर्षि भृगु ब्रह्माका मानस पुत्र (मनबाट सृजना भएका) हुन। उनलाई ब्रह्माद्वारा सृजित प्नजापतिहरु मध्ये एक मानिन्छ भने ज्योतिषशास्त्रका प्रर्वतक पनि भनिन्छ।

महर्षि भृगु
Bhrigu
महर्षि भृगुको पेन्टिङ्ग
प्राप्त जानकारी
जीवनसाथीख्याती, काव्यमाता, पुलोमा
बच्चाधाता, विधाता, शुक्र, च्यवन, र भार्गवी

श्रीमद्भागवत गीतामा श्रीकृष्णले ऋषिहरु मध्यमा म भृगु ऋषि हुँ भनेका छन।

महर्षि भृगुको बारेमा शिव पुराणवायु पुराणमा पनि उल्लेख भएको छ।

सन्ततिहरु सम्पादन गर्नुहोस्

महर्षि भृगुले दक्ष प्नजापतिकी छोरी ख्यातीसँग विवाह गरे। उनका २ छोराहरु धाता र विधाता थिए भने १ मात्र छोरी भार्गवीको विवाह भगवान विष्णुसँग भएको थियो।

काव्यमातामार्फत भृगु ऋषिलाई अर्का पुत्रलाभ भयो जो शुक्रको नामले विश्वविख्यात भए।

भृगु ऋषिले नै पुलोमाबाट च्यवनलाई जन्म दिलाए। च्यवन जमदग्नि ऋषिका पूर्खा हुन। भगवान विष्णुले आफ्नो ६औं अवतार जमदग्निका छोरा पर्शुरामको रूपमा लिएका थिए।

भार्गव गोत्र/ प्रवर सम्पादन गर्नुहोस्

भार्गव शब्द भृगुको विशेषणात्मक शब्द हो र महर्षि भृगुका सन्ततिलाई जनाउन प्रयोग गरिन्छ। भारतका विभिन्न समुदायमा भार्गवलाई गोत्र मान्ने चलन छ। नेपालमा भने भार्गवलाई वत्स गोत्रको प्रवरको रूपमा लिईन्छ।

पौराणिक विशिष्टता सम्पादन गर्नुहोस्

त्रिदेवको परीक्षण सम्पादन गर्नुहोस्

भृगु संहिता सम्पादन गर्नुहोस्

। । महर्षि भृगु साठिका। । सम्पादन गर्नुहोस्

जिनके सुमिरन से मिटै, सकल कलुष अज्ञान।

सो गणेश शारद सहित, करहु मोर कल्यान।।

वन्दौं सबके चरण रज, परम्परा गुरुदेव।

महामना, सर्वेश्वरा, महाकाल मुनिदेव। ।

बलिश्वर पद वन्दिकर, मुनि श्रीराम उर धारि।

वरनौ ऋषि भृगुनाथ यश, करतल गत फल चारि। ।

जय भृगुनाथ योग बल आगर। सकल सिद्धिदायक सुख सागर।। 1।।

विश्व सुमंगल नर तनुधारी। शुचि गंग तट विपिन विहारी।।2।।

भृगुक्षेत्र सुरसरि के तीरा। बलिया जनपद अति गम्भीरा। ।3।।

सिद्ध तपोधन दर्दर स्वामी। मन-वच-क्रम गुरु पद अनुगामी। ।4।।

तेहि समीप भृग्वाश्रम धामा। भृगुनाथ है पूरन कामा। । 5।।

स्वर्ग धाम निकट अति भाई। एक नगरिका सुषा सुहाई। । 6।।

ऋषि मरीचि से उद्गम भाई। यहीं महॅ कश्यप वंश सुहाई। ।7।।

ता कुल भयऊ प्रचेता नेमी। होय विनम्र संत सुर सेवी।।8।।

तिनकी भार्या वीरणी रानी। गाथा वेद-पुरान बखानी। ।9।।

तिनके सदन युगल सुत होई। जन्म-जन्म के अघ सब खोई। ।10।।

भृगु अंगिरा है दोउ नामा। तेज प्रताप अलौकिक धामा।। 11।।

तरुण अवस्था प्रविसति भयऊ। गुरु सेवा में मन दोउ लयऊ। ।12।।

करि हरि ध्यान प्रेम रस पागो। आत्मज्ञान होन हैं लागे।।13।।

परम वीतराग ब्रह्मचारी। मातु समान लखै पर नारी।।14।।

कंचन को मिट्टी करि जाना। समदर्शी तुम्ह ज्ञान निधाना।।15।।

दैत्यराज हिरण्य की कन्या। कोमल गात नाम था दिव्या।।16।।

भृगु-दिव्या की हुई सगाई। ब्रह्मा-वीरणी मन हरसाई। ।17।।

दानव राज पुलोम भी आया। निज सुता पौलमी को लाया।।18।।

सिरजनहार कृपा अब किजै। भृगु-पौलमी ब्याह कर लीजै।।19।।

ब्रह्मलोक में खुशियां छाई। तीनों लोक बजी शहनाई।।20।।

दिव्या-भृगु के सुत दो होई। त्वष्टा,शुक्र नाम कर जोई।।21।।

भृगु-पौलमी कर युगल प्रमाना। च्यवन,ऋचीक है जिनके नामा।।22।।

काल कराल समय नियराई। देव-दैत्य मॅह भई लड़ाई। ।23।।

ब्रह्मानुज विष्णु कर कामा। देव गणों का करें कल्याना।। 24।।

भृगु भार्या दिव्या गई मारी। चारु दिशा फैली अॅधियारी। ।25।।

सुषा छोड़ि मंदराचल आये। ऋषिन जुटाय यज्ञ करवाये।।26।।

ऋषियन मॅह चिन्ता यह छाई। कवन बड़ा देवन मॅह भाई।। 27।।

ऋषिन-मुनिन मन जागी इच्छा। कहे, भृगु कर लें परीक्षा।।28।।

गये पितृलोक ब्रह्मा नन्दन। जहाॅ विराज रहे चतुरानन।।29।।

ऋषि-मुनि कारन देव सुखारी। तिनके कोऊ नाहि पुछारी।।30।।

श्राप दियो पितु को भृगुनाथा। ऋषि-मुनिजन का ऊॅचा माथा।।31।।

ब्रह्मलोक महिमा घटि जाही। ब्रह्मा पूज्य होहि अब नाही।।32।।

गये शिवलोक भृगु आचारी। जहाॅ विराजत है त्रिपुरारी।।33।।

रुद्रगणों ने दिया भगाई। भृगुमुनि तब गये रिसिआई।। 34।।

शिव को घोर तामसी माना। जिनसे हो  सबके कल्याना।।35।।

कुपित भयउ कैलाश विहारी। रुद्रगणों को तुरत निकारी।।36।।

कर जोरे विनती सब कीन्हा। मन मुसुकाई आपु चल दीन्हा।।37।।

शिवलोक उत्तर दिशि भाई। विष्णु लोक अति दिव्य सुहाई।।38।।

क्षीर सागर में करत विहारा। लक्ष्मी संग जग पालनहारा।।39।।

लीला देखि मुनि गए रिसियाई। कैसे जगत चले रे भाई।।40।।

विष्णु वक्ष पर कीन्ह प्रहारा। तीनहूॅ लोक मचे हहकारा।।41।।

विष्णु ने तब पद गह लीन्हा। कहानाथ आप भल कीन्हा।।42।।

आत्म स्वरुप विज्ञ पहचाना। महिमामय विष्णु को माना।।43।।

दण्डाचार्य मरीचि मुनि आये। भृगुमुनि को दण्ड सुनाये।।44।।

तुम्हने कियो त्रिदेव अपमाना। नहि कल्यान काल नियराना।।45।।

पाप विमोचन एक अधारा। विमुक्ति भूमि गंगा की धारा।।46।।

हाथ जोरि विनती मुनि कीन्हा। विमुक्ति भूमि का देहू चीन्हा।।47।।

मुदित मरिचि बोले मुसकाई। तीरथ भ्रमन करौं तुम्ह सांई।।48।।

जहाॅ गिरे मृगछाल तुम्हारी। समझों भूमि पाप से तारी।।49।।

भ्रमनत भृगुमुनि बलिया आये। सुरसरि तट पर धूनि रमाये।।50।।

कटि से भू पर गिरी मृगछाला। भुज अजान बाल घुॅघराला।51।।

करि हरि ध्यान प्रेम रस पागे। विष्णु नाम जप करन लागे।।52।।

सतयुग के वह दिन थे न्यारे। दर्दर चेला भृगु के प्यारे।।53।।

दर्दर से सरयू मंगवाये। यहाॅ भृगुमुनि यज्ञ कराये।।54।

गंगा-सरयू संगम अविनाशी। संगम कार्तिक पूरनमासी।।55।।

जुटे करोड़ो देव देह धारी। अचरज करन लगे नर-नारी।।56।।

जय-जय भृगुमुनि दीन दयाला। दया सुधा बरसेहूॅ सब काला।।57।।

सब संकट पल माॅहि बिलावैं। जे धरि ध्यान हृदय गुन गावैं।।58।।

सब संकल्प सिद्ध हो ताके। जो जन चरण-शरण गह आके।।59।।

परम दयामय हृदय तुम्हारो। शरणागत को शीघ्र उबारो।।60।।

आरत भक्तन के हित भाई। कौशिकेय यह चरित बनाई।।

भृगु संहिता रची करि, भक्तन को सुख दीन्ह।

दर्दर को आशीष दे, आपु गमन तब कीन्ह।।

पावन संगम तट मॅह कीन्ह देह का त्याग।

शिवकुमार इस भक्त को देहू अमित वैराग्य।।

दियो समाधि अवशेष की भृग्वाश्रम निजधाम।

दर्शन इस धाम के, सिद्व होय सब काम।। सम्पादन गर्नुहोस्

सन्दर्भ सूची सम्पादन गर्नुहोस्