"अनन्त चतुर्दशी" का संशोधनहरू बिचको अन्तर
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पङ्क्ति ३:
यस दिन व्रतीलाई चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्महरुबाट निवृत्त भएर कलशको स्थापना गर्नुहोस्। कलशमा अष्टदल कमलका समान बने बर्तनमा कुशबाट निर्मित अनन्तको स्थापनाको जान्छ। यसका अघि कुंकुम, केसर वा हल्दीबाट रंगकर बनाएको कच्चे डोरेको चौदह गांठहरु वाला 'अनन्त' पनि रखिन्छ।
यो व्रत नदी-तटमा गरे जाना चाहिए, जहाँ हरिको कथाहरु सुन्नुपर्छ। हरिबाट यस प्रकारको प्रार्थनाको जान्छ--'हे वासुदेव, यस अनन्त संसार रूपी महासमुद्रमा डूबे भए मानिसहरुको रक्षा गरो तथा तिनलाई अनन्तका रूपको ध्यान गर्नमा संलग्न गरो, अनन्त रूप भएका तिमीलाई नमस्कार।'[2] यस मन्त्रबाट हरिको पूजा गरेर तथा आफ्नो हाथका
कथा
यस दिन भगवान विष्णुको कथा हुन्छ। यसमा उदय तिथि ली जान्छ। पूर्णिमाको सहयोग हुनबाट यसको बल बढ़ जान्छ। यदि मध्याह्नसम्म चतुर्दशी छ भनें अधिक राम्रो छ। जैसा यस व्रतका नामबाट लक्षित हुन्छ कि यो दिन त्यस
यस दिन व्रतीलाई चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्महरुबाट निवृत्त भएर कलशको स्थापना गर्नुहोस्। कलशमा अष्टदल कमलका समान बने बर्तनमा कुशबाट निर्मित अनन्तको स्थापनाको जान्छ। यसका अघि कुंकुम, केसर वा हल्दीबाट रंगकर बनाएको कच्चे डोरेको चौदह गांठहरु वाला 'अनन्त' पनि रखिन्छ। कुशका अनन्तको वंदना गरेर, त्यसमा भगवान विष्णुको आह्वान तथा ध्यान गरेर गंध, अक्षत, पुष्प,
यस दिन नयाँ डोरेका अनन्तलाई धारण गरेर पुरानोको त्याग गर दिनुपर्नेछ। यस व्रतको पारण ब्राह्मणलाई दान गरेर गर्नु पर्नेछ। अनन्तको चौदह गांठे चौदह लोकहरुको प्रतीत मानी गई छन्। उनमा अनन्त भगवान विद्यमान छन्। भगवान सत्यनारायणका समान नैं अनन्तदेव पनि भगवान विष्णुको नैं एक नाम छ। यही कारण छ कि यस दिन सत्यनारायणको व्रत र कथाको आयोजन प्राय: गरिन्छ। जसमा सत्यनारायणको कथाका साथ-साथ अनन्तदेवको कथा पनि सुनी जान्छ।
पङ्क्ति १५:
पराजित भएमा प्रतिज्ञानुसार पाण्डवहरुलाई बारह वर्षका लागि वनवास भोगना पड़ा वनमा रहते भए पाण्डव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए तब युधिष्ठिरले उनीसित आफ्नो दुख कहा र दुख टाड़ा गर्ने उपाय पूछा। तब श्रीकृष्णले कहा-'हे युधिष्ठिर! तिमीविधिपूर्वक अनन्त भगवानको व्रत गरो, यसबाट तिम्रो सारा संकट टाड़ा हुनेछ र तिम्रो खोया राज्य पुन: प्राप्त हुनेछ।' यस संदर्भमा श्रीकृष्ण एक कथा सुनाँदै भए बोले-
प्राचीन कालमा सुमन्त नामको एक नेक तपस्वी ब्राह्मण थियो। त्यसको पत्नीको नाम दीक्षा थियो। त्यसको एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थियो। जसको नाम सुशीला थियो। सुशीला जब बड़ी भएको त त्यसको माता दीक्षाको मृत्यु हो गई। पत्नीका मरनेका पछि सुमन्तले गर्कशा नामक स्त्रीबाट अर्को विवाह गरे। सुशीलाको विवाह त्यस ब्राह्मणले कौडिन्य ऋषिका साथ गर दिया। विदाईमा केही देने कुरामा गर्कशाले दामादलाई केही ईंटहरु र पत्थरहरुका टुकड़े बांधकर दे दिए। कौडिन्य ऋषि दुखी हो आफ्नो पत्नीलोई लिएर आफ्नो आश्रमको ओर चल दिए। परन्तु रास्तेमा नैं रात हो गई। ती नदी तटमा सन्ध्या गरने लागोस्। सुशीलाले देखा-वहांमा धेरै सी स्त्रीहरु सुंदर वस्त्र धारण गर कुनै देवताको पूजामा रही थियों। सुशीलाका पूछनेमा उनले विधिपूर्वक अनन्त व्रतको महत्ता बताई। सुशीलाले वहीं त्यस व्रतको अनुष्ठान गरे र चौदह गांठहरु वाला डोरा हाथमा बांधकर ऋषि कौडिन्यका
कौडिन्यले सुशीलाबाट डोरेका बारेमा पूछा त त्यसले सारी कुरा बता दी। उनले डोरेलाई तोड़कर अग्निमा डाल दिया यसबाट भगवान अनन्त जीको अपमान हुने/भयो। परिणामत: ऋषि कौडिन्य दुखी रहने लागोस्। तिनको सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। यस दरिद्रताको उनले आफ्नो पत्नीबाट कारण पूछा त सुशीलाले अनन्त भगवानको डोरा जलाने कुरा कहीं। पश्चातापेरते भए ऋषि कौडिन्य अनन्त डोरेको प्राप्तिका लागि वनमा चले गए। वनमा धेरै दिनहरुसम्म भटकते-भटकते निराश भएर एक दिन भूमिमा गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट भएर बोले- 'हे कौडिन्य!
संदर्भ ग्रंथ सूची
पङ्क्ति ३७:
भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी भनिन्छ। इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्तसूत्रबांधा जाता है। दृश्यगणितके अनुसार मंगलवार 25सितंबर को प्रात:7.14बजे भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी प्रारंभ होकर बुधवार के सूर्योदय से पूर्व प्रात:4.27बजे तक विद्यमान रहेगी। अतएव अनन्तचतुर्दशीका व्रत-पूजन 25सितंबर को ही सम्पन्न होगा।
भनिन्छ कि जब पाण्डव जुएमें अपना सारा राज-पाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हंन अनन्तचतुर्दशीका व्रत करने की
व्रत-विधान-व्रतकर्ता प्रात:स्नान करके व्रत का संकल्प करें। शास्त्रों में यद्यपि व्रत का संकल्प एवं पूजन किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर करने का विधान है, तथापि ऐसा संभव न हो सकने की स्थिति में घर में पूजागृह की स्वच्छ भूमि पर कलश स्थापित करें। कलश पर शेषनाग की शैय्यापर लेटे भगवान विष्णु की मूíत अथवा चित्र को रखें। उनके समक्ष चौदह ग्रंथियों(गांठों) से युक्त अनन्तसूत्र(डोरा) रखें। इसके बाद ॐ अनन्तायनम: मंत्र से भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्रकी षोडशोपचार-विधिसे पूजा करें। पूजनोपरांतअनन्तसूत्रको मंत्र पढकर पुरुष अपने दाहिने
अनन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धर वासुदेव।
पङ्क्ति ४४:
अनंतसूत्रबांध लेने के पश्चात किसी ब्राह्मण को नैवेद्य (भोग) में निवेदित पकवान देकर स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें। पूजा के बाद व्रत-कथा को पढें या सुनें। कथा का सार-संक्षेप यो है- सत्ययुग में सुमन्तुनाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्यमुनि से किया। कौण्डिन्यमुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्तसूत्रबांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।
एकदिनकौण्डिन्यमुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं
भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्तसूत्रका तिरस्कार किया है, यो सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्यमुनिने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा-जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मोका फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है।मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट हुन्छन् तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्यमुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।
पङ्क्ति ५६:
पूजा विधि | Puja Method
इस दिन प्रात: काल स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए. फिर एक चौकी के ऊपर मण्डप बनाकर उसमें अक्षत(चावल) सहित अथवा कुशा के सात कणों से शेष भगवान, विष्णु जी की प्रतिमा स्थापित करते हैं. इसके बाद कच्चे डोरे को हल्दी से रंगकर इसमें 14 गाँठे लगाकर प्रतिमा के साथ
अनन्त की 14 गाँठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की द्योतक है. पूजा के अन्त में अनन्त भगवान का स्मरण करते हुए एक मंत्र से प्रार्थना की जाती है. मंत्र है :- "अनन्त सर्व नागानामधिप: सर्वकामद:, सदा भूयात प्रसन्नोमे भक्तानामभयं-कर:" इस व्रत में भोजन में नमक का त्याग
अनन्त चतुर्दशी की कथा | Anant Chaturdashi Katha in Hindi
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार पाण्डव, कौरवों से द्युत क्रीडा़ में हार जाते हैं और उन्हें 12 वर्ष का वनवास मिलता है. एक दिन भगवान कृष्ण पाण्डवों से मिलने आते हैं. उस दिन युधिष्ठिर सारा वृतान्त उन्हें सुनाते हैं और इस कष्ट से बचाव का उपाय पूछते हैं. तब श्रीकृष्ण जी उन्हें कहते हैं कि आप सभी विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करें. आपका खोया हुआ राज्य
कृष्ण जी कहते हैं कि प्राचीन समय में सुमन्त नाम का एक ब्राह्मण था. इस ब्राह्मण की सुशीला नाम की एक कन्या थी. ब्राह्मण ने सुशीला के बडे़ होने पर उसका विवाह कौडिन्य ऋषि के साथ सम्पन्न कर दिया. कौडिन्य ऋषि सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए. चलते-चलते रास्ते में ही संध्या हो गई. ऋषि नदी के किनारे रास्ते में ही संध्या करने लगे. तभी सुशीला ने देखा कि वहाँ बहुत सी स्त्रियाँ किसी देवता की पूजा कर रही हैं. त्यो उनके
सुशीला के
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