"अनन्त चतुर्दशी" का संशोधनहरू बिचको अन्तर
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यस दिन व्रतीलाई चाहिए कि प्रात:काल स्नानादि नित्यकर्महरुबाट निवृत्त भएर कलशको स्थापना गर्नुहोस्। कलशमा अष्टदल कमलका समान बने बर्तनमा कुशबाट निर्मित अनन्तको स्थापनाको जान्छ। यसका अघि कुंकुम, केसर वा हल्दीबाट रंगकर बनाएको कच्चे डोरेको चौदह गांठहरु वाला 'अनन्त' पनि रखिन्छ।
यो व्रत नदी-तटमा गरे जाना चाहिए, जहाँ हरिको कथाहरु सुन्नुपर्छ। हरिबाट यस प्रकारको प्रार्थनाको जान्छ--'हे वासुदेव, यस अनन्त संसार रूपी महासमुद्रमा डूबे भए मानिसहरुको रक्षा गरो तथा तिनलाई अनन्तका रूपको ध्यान गर्नमा संलग्न गरो, अनन्त रूप भएका तिमीलाई नमस्कार।'[2] यस मन्त्रबाट हरिको पूजा गरेर तथा आफ्नो हाथका माथिी भागमा वा गलेमा धागा बाँधकर वा लटकाएर (जिसमा मन्त्र पढ़िएको हो) व्रती अनन्त व्रत गर्दछ तथा प्रसन्न हुन्छ। यदि हरि अनन्त छन् त 14 गाँठहरु हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकहरुको द्योतक छन्।[3]मा अनन्त व्रतको विवरण विशद रूपबाट आया छ, त्यसमा कृष्ण द्वारा युधिष्ठिरबाट कही गयी कौण्डिन्य एवं त्यसको स्त्री शीलाको गाथा पनि आयी छ। कृष्णको कथन छ कि 'अनन्त' उनका रूपहरुको एक रूप छ र ती काल छन् जसलाई अनन्त भनिन्छ। अनन्त व्रत चन्दन, धूप, पुष्प, नैवेद्यका उपचारहरुका साथ गरिन्छ। यस व्रतका विषयमा अन्य बातहरुका लिए।[4] यस्तो आया छ कि यदि यो व्रत 14 वर्षहरुसम्म गरे जाय त व्रती विष्णुलोकको प्राप्ति गर सक्दछ।[5]इस व्रतका उपयुक्त एवं तिथिका विषयमा धेरै मत प्रकाशित हो गये छन्। माधव[6]का अनुसार यस व्रतमा मध्याह्न गर्मकाल छैन किन्तु उ तिथि, जो
कथा
पङ्क्ति १२:
यस दिन नयाँ डोरेका अनन्तलाई धारण गरेर पुरानोको त्याग गर दिनुपर्नेछ। यस व्रतको पारण ब्राह्मणलाई दान गरेर गर्नु पर्नेछ। अनन्तको चौदह गांठे चौदह लोकहरुको प्रतीत मानी गई छन्। उनमा अनन्त भगवान विद्यमान छन्। भगवान सत्यनारायणका समान नैं अनन्तदेव पनि भगवान विष्णुको नैं एक नाम छ। यही कारण छ कि यस दिन सत्यनारायणको व्रत र कथाको आयोजन प्राय: गरिन्छ। जसमा सत्यनारायणको कथाका साथ-साथ अनन्तदेवको कथा पनि सुनी जान्छ।
एक बार महाराज युधिष्ठिरले राजसूय यज्ञ गरे। त्यस समय यज्ञ मण्डपको निर्माण सुंदर त थियो ही, अद्भुत पनि थियो उ यज्ञ मण्डप इतना मनोरम थियो कि जल अनि स्थलको भिन्नता प्रतीत नैं छैनती थियो। जलमा स्थल तथा स्थलमा जलको भांति प्रतीत होती थियो। धेरै सावधानी गर्नमा पनि धेरै व्यक्ति त्यस अद्भुत मण्डपमा धोखा खा चुके थिए। एक बार कहींबाट टहलते-टहलते
पराजित भएमा प्रतिज्ञानुसार पाण्डवहरुलाई बारह वर्षका लागि वनवास भोगना पड़ा वनमा रहते भए पाण्डव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए तब युधिष्ठिरले उनीसित आफ्नो दुख कहा र दुख टाड़ा गर्ने उपाय पूछा। तब श्रीकृष्णले कहा-'हे युधिष्ठिर! तिमीविधिपूर्वक अनन्त भगवानको व्रत गरो, यसबाट तिम्रो सारा संकट टाड़ा हुनेछ र तिम्रो खोया राज्य पुन: प्राप्त हुनेछ।' यस संदर्भमा श्रीकृष्ण एक कथा सुनाँदै भए बोले-
प्राचीन कालमा सुमन्त नामको एक नेक तपस्वी ब्राह्मण थियो। त्यसको पत्नीको नाम दीक्षा थियो। त्यसको एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थियो। जसको नाम सुशीला थियो। सुशीला जब बड़ी भएको त त्यसको माता दीक्षाको मृत्यु हो गई। पत्नीका मरनेका पछि सुमन्तले गर्कशा नामक स्त्रीबाट अर्को विवाह
कौडिन्यले सुशीलाबाट डोरेका बारेमा पूछा त त्यसले सारी कुरा बता दी। उनले डोरेलाई तोड़कर अग्निमा डाल दिया यसबाट भगवान अनन्त जीको अपमान हुने/भयो। परिणामत: ऋषि कौडिन्य दुखी रहने लागोस्। तिनको सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। यस दरिद्रताको उनले आफ्नो पत्नीबाट कारण पूछा त सुशीलाले अनन्त भगवानको डोरा जलाने कुरा कहीं। पश्चातापेरते भए ऋषि कौडिन्य अनन्त डोरेको प्राप्तिका लागि वनमा चले गए। वनमा धेरै दिनहरुसम्म भटकते-भटकते निराश भएर एक दिन भूमिमा गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट भएर बोले- 'हे कौडिन्य! तुमने मेरो तिरस्कार गरेको थियो, त्यसैबाट तिमीलाई इतना कष्ट भोगना पड़ा। तिमीदुखी भए। अब तुमने पश्चाताप गरेकोछ। म तुमसे प्रसन्न हूं। अब तिमीघर जाएर विधिपूर्वक अनन्त व्रत गरो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत गर्नको लागि तिम्रो दुख टाड़ा हुनेछ। तिमीधन-धान्यबाट सम्पन्न हो जाओगे। कौडिन्यले वैसा नैं गरे र तिनलाई सारे क्लेशहरुबाट मुक्ति मिल गई।' श्रीकृष्णको आज्ञाबाट युधिष्ठिरले पनि अनन्त भगवानको व्रत गरे जसका प्रभावबाट पाण्डव महाभारतका युद्धमा विजयी भए तथा चिरकालसम्म राज्य गर्दैरहे।
पङ्क्ति ३६:
भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी
व्रत-विधान-व्रतकर्ता प्रात:स्नान करके व्रत का संकल्प करें। शास्त्रों में यद्यपि व्रत का संकल्प एवं पूजन किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर करने का विधान है, तथापि ऐसा संभव न हो सकने की स्थिति में घर में पूजागृह की स्वच्छ भूमि पर कलश स्थापित करें। कलश पर शेषनाग की शैय्यापर लेटे भगवान विष्णु की मूíत अथवा चित्र को रखें। उनके समक्ष चौदह ग्रंथियों(गांठों) से युक्त अनन्तसूत्र(डोरा) रखें। इसके बाद ॐ अनन्तायनम: मंत्र से भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्रकी षोडशोपचार-विधिसे पूजा करें। पूजनोपरांतअनन्तसूत्रको मंत्र पढकर पुरुष अपने दाहिने हाथ और स्त्री बाएं हाथ में बांध लें-
पङ्क्ति ४३:
अनंतरूपे विनियोजितात्मा ह्यनन्तरूपाय नमो नमस्ते॥
अनंतसूत्रबांध लेने के पश्चात किसी ब्राह्मण को नैवेद्य (भोग) में निवेदित पकवान देकर स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें। पूजा के बाद व्रत-कथा को पढें या सुनें। कथा का सार-संक्षेप
एकदिनकौण्डिन्यमुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्तसूत्रपर पडी, जिसे देखकर
भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्तसूत्रका तिरस्कार किया है,
हिन्दु तिथि के अनुसार भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी के रुप में मनाया जाता है. इस दिन भगवान विष्णु जी की पूजा की जाती है. इस वर्ष
विष्णु जी, कृष्ण रुप है और शेषनाग काल रुप से विद्यमान रहते हैं. अत: इस दिन दोनों की सम्मिलित रुप से पूजा हो जाती है. भगवान कृष्ण के अनुसार "अनन्त" उनके रुपों का एक रुप है और
पूजा विधि | Puja Method
इस दिन प्रात: काल स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए. फिर एक चौकी के ऊपर मण्डप बनाकर उसमें अक्षत(चावल) सहित अथवा कुशा के सात कणों से शेष भगवान, विष्णु जी की प्रतिमा स्थापित करते हैं. इसके बाद कच्चे डोरे को हल्दी से रंगकर इसमें 14 गाँठे लगाकर प्रतिमा के साथ रखा जाता है. फिर गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन किया जाता है. उसके बाद अनन्तदेव का शुद्ध आचरण से करते हुए शुद्ध अनन्त को दांई भुजा में धारण किया जाता है. स्त्रियाँ इस धागे को बांए हाथ में ग्रहण बांधती हैं. यही धागा अनन्त फल प्रदान करने वाला
अनन्त की 14 गाँठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की द्योतक है. पूजा के अन्त में अनन्त भगवान का स्मरण करते हुए एक मंत्र से प्रार्थना की जाती है. मंत्र है :- "अनन्त सर्व नागानामधिप: सर्वकामद:, सदा भूयात प्रसन्नोमे भक्तानामभयं-कर:" इस व्रत में भोजन में नमक का त्याग किया जाता है.
पङ्क्ति ६३:
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार पाण्डव, कौरवों से द्युत क्रीडा़ में हार जाते हैं और उन्हें 12 वर्ष का वनवास मिलता है. एक दिन भगवान कृष्ण पाण्डवों से मिलने आते हैं. उस दिन युधिष्ठिर सारा वृतान्त उन्हें सुनाते हैं और इस कष्ट से बचाव का उपाय पूछते हैं. तब श्रीकृष्ण जी उन्हें कहते हैं कि आप सभी विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करें. आपका खोया हुआ राज्य आपको पुन: प्राप्त हो जाएगा. फिर भगवान कृष्ण उन्हें एक कथा सुनाते हैं. कथा है :-
कृष्ण जी कहते हैं कि प्राचीन समय में सुमन्त नाम का एक ब्राह्मण था. इस ब्राह्मण की सुशीला नाम की एक कन्या थी. ब्राह्मण ने सुशीला के बडे़ होने पर उसका विवाह कौडिन्य ऋषि के साथ सम्पन्न कर दिया. कौडिन्य ऋषि सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए. चलते-चलते रास्ते में ही संध्या हो गई. ऋषि नदी के किनारे रास्ते में ही संध्या करने लगे. तभी सुशीला ने देखा कि वहाँ बहुत सी स्त्रियाँ किसी देवता की पूजा कर रही हैं.
सुशीला के हाथ में बंधे डोरे को देखकर कौडिन्य ने उसका रहस्य पूछा. सुशीला ने सारा वृतान्त उन्हें सुना दिया. कौडिन्य ने सभी कुछ सुनने पर डोरा तोड़कर अग्नि में डाल दिया. इससे भगवान अनन्त का अपमान हुआ. जिसके परिणाम स्वरुप ऋषि सुखी नहीं रह सकें और उनकी सारी धन-दौलत समाप्त हो गई. ऋषि ने सुशीला से इसका कारण पूछा. तब सुशीला ने ऋषि को अनन्त डोरे की बात याद दिलाई. कौडिन्य पश्चाताप से उद्विग्न हो गए और उस डोरे की तलाश में वन चले गए. वन में काफी दिन घूमते-घूमते
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